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बदल रहा है मुस्लिम समाज / सैयद सलमान
Friday, April 12, 2019 - 10:32:07 AM - By सैयद सलमान

बदल रहा है मुस्लिम समाज / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 12 04 2019

१७वीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान का दौर पूरा हो चुका है। अभी ६ चरण के मतदान की प्रक्रिया बाक़ी है। ज्यों-ज्यों देश भर के अलग-अलग हिस्सों में चुनावी सरगर्मी बढ़ती जा रही है, सियासी पारा और भी गरमा रहा है। मुस्लिम राजनीति में भी हलचल है। ख़ासकर उत्तरप्रदेश में मुस्लिम समुदाय को लेकर बसपा प्रमुख मायावती के बयान के बाद मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति फिर से चर्चा में है। मायावती ने मुस्लिम वोटरों से आह्वान किया है कि आप कांग्रेस को वोट नहीं दें, क्योंकि बीजेपी को हराने का माद्दा केवल सपा-बसपा गठबंधन के पास है। मुस्लिम समाज को जिस तरह से कुछ दलों ने अपनी राजनैतिक जागीर बनाकर रखा है, यह उसी का परिणाम है कि अब उन्हीं दलों के बीच मुस्लिम मतों को लेकर खींचतान हो रही है। मुस्लिम वोट को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा सहित अनेक ग़ैर-भाजपाई दल भरसक प्रयास कर रहे हैं। महागठबंधन नाम की काठ की हांडी चढ़ने से पहले ही टूट-फूट कर बिखर गई है। अब मुस्लिम मतों के महत्त्व को देखते हुए ग़ैर-भाजपाई दलों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ ही तलवारें तान ली हैं। उत्तर प्रदेश सहित देश भर में करो या मरो की भूमिका में पहुंच चुकी कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में जमकर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं। सपा-बसपा गठबंधन में इसी बात को लेकर बैचैनी है। मायावती के बयान के बाद ही योगी का अली और बजरंगबली का विवादित बयान आया। राजनैतिक बिसात पर सभी अपने-अपने पांसे फेंक रहे हैं और देश ध्रुवीकरण के इस खेल को ठगा सा देख रहा है। मुस्लिम समुदाय भी अपने हमवतन भाइयों के साथ ही एक साधारण मतदाता बनकर मताधिकार का प्रयोग करना चाहता है। लेकिन मुस्लिम वोटों की सौदागरी करने वाले ऐसा होने देने में रोड़ा बन रहे हैं।

हालांकि अब मुस्लिम समाज में सकारात्मक तब्दीली महसूस की जा रही है। सरकार बदलेगी या नहीं, सरकार किसकी बनेगी या क्या सियासी गणित बैठेगा इस बात की परवाह करने के साथ-साथ मुस्लिम समाज ख़ुद में बदलाव लाने पर अधिक ज़ोर दे रहा है। कई ऐसे नाज़ुक मसले हैं जिन पर मुस्लिम समाज खुल कर बोलने से कतराता रहा है, लेकिन अब मुखर होकर सामने आ रहा है। ट्रिपल तलाक़, हलाला, विरासत जैसे मुद्दों पर मुस्लिम महिलाएं भी मुखर हुई हैं। अशिक्षा और कट्टरपंथ की जगह शिक्षा और जागरूकता की बातें हो रही हैं। संजीदगी से अब रूढ़िवादी सोच से बाहर निकलने की छटपटाहट महसूस की जा सकती है। मुसलमानों के बीच अन्य समाज के मुक़ाबले पिछड़ जाने का एहसास बढ़ा है। अब मुसलमान शिक्षा पर अधिक ज़ोर दे रहा है। मुस्लिम बच्चियों को अब उच्च शिक्षा देने के मामले में भी मुस्लिम समाज ने सकारात्मक पहल की है। वोट बैंक की राजनीति से किनारा करने की रणनीति बनाकर शैक्षणिक विकास के संकल्पों को दोहराया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा अपनाने की पहल में बढ़ोत्तरी हुई है। शायद यही वजह है कि इस्लामिक शिक्षा के मशहूर शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद सहित अनेक मज़हबी मदरसों और मुस्लिम शैक्षणिक संस्थानों में अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया है। विज्ञान, गणित, अकाउंट्स और कंप्यूटर शिक्षा को मदरसा शिक्षा में शामिल करने का चलन बढ़ा है। अनेक मदरसे मौलाना आज़ाद यूनिवर्सिटी के जरिए वर्चुअल क्लासेस के माध्यम से अपने यहां पाठ्यक्रम चला रहे हैं। यह सब मुस्लिम मानसिकता के बदलने का संकेत है।

आम तौर पर मुसलमानों को थोक वोट बैंक माना जाता रहा हो, लेकिन राजनीतिक दलों के इस भ्रम को मुसलमानों ने तोड़ने का काम बहुत पहले से शुरू कर दिया था और आज उसका असर साफ़ दिख रहा है। अब मुस्लिम समाज का बड़े से बड़ा कथित रहनुमा या धर्मगुरु मुस्लिम समाज को अपने सियासी फ़तवों के जाल में नहीं फाँस सकता और न यह दावा कर सकता है कि उसके फ़तवे पर ही मुस्लिम समाज वोट करेगा। न ही वह सियासी रहनुमाओं के बयानों को गंभीरता से ले रहा है। मुस्लिम समाज में भी आम भारतीयों जैसी ही सहिष्णुता जोर मार रही है और वह पहले से अधिक परिपक्व हुआ है। मुस्लिम समाज एहसास-ए-कमतरी का शिकार रहा है, लेकिन अब उसके भीतर भी यह कसमसाहट है कि आख़िर उन्हें बिरादरान-ए-वतन से अलग क्यों समझा जाता है? मुस्लिम समाज को राजनैतिक नज़रिए से कमतर आंकने का आख़िर कारण क्या है?

दरअसल अब मुस्लिम बुद्धिजीवियों, प्रामाणिक मुस्लिम उलेमा, विभिन्न मसलक के धर्मगुरुओं और समझदार पढ़े-लिखे मुस्लिम युवाओं के सार्थक हस्तक्षेप की बुनियाद पर मुसलमानों में तरक़्क़ी पसंद होने की चाहत बढ़ी है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यही पूर्ण सत्य है। आज भी कम पढ़े लिखे और दुनियावी तालीम के मामले में अन्य समाज से पिछड़े हुए मुसलमान गाहे बगाहे कट्टरपंथी सोच के मुस्लिम सियासी रहनुमाओं के बहकावे में आ ही जाते हैं। हालांकि अब उनकी तादाद सिकुड़ने लगी है। अब तो सियासी फ़तवे भी कमोबेश राष्ट्रीय सोच से प्रभावित होकर दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए, देवबंद का एक फ़तवा बिरादरान-ए-वतन हिंदू भाइयों के खिलाफ काफ़िर शब्द कहने से भी गुरेज़ करने की नसीहत करता है। फ़तवे के मुताबिक हिंदुओं में भी दुनिया बनाने वाले के लिए आस्था है, इसलिए उनके ख़िलाफ़ ऐसा कोई फ़तवा नहीं दिया जाना चाहिए जिससे टकराव बढ़े। उक्त फ़तवे में मुसलमानों के लिए हिंदुओं को अपना भाई-बहन मानने की सीख है। निस्संदेह ऐसे फ़तवों से सच्ची और असली इस्लामी सहिष्णुता का परचम बुलंद होता है।

ऐसे शिक्षित और प्रगतिशील विचारों की वजह से चुनावों को लेकर भी अब मुसलमान सजग हुआ है। चुनावी विशेषज्ञों, ख़ासकर मुसलमानों को हांकने वाले राजनेताओं को लगता रहा है कि मुस्लिम समाज की किसी एक बड़ी शख़्सियत को मोहरा बनाकर उसके बहाने बड़ी मुस्लिम आबादी को अपने पाले में किया जा सकता है। लेकिन बदलाव की बयार ने बरसों से बने इस भ्रमजाल को तहस-नहस कर दिया है। सियासत के मैदान पर जमाए गए मुस्लिम जलसों में यह बात अब खुलकर कही जाती है कि मुसलमान अब राजनीति समझने भी लगा है और समझकर निर्णय भी लेने लगा है। आज़ादी के बाद हुए अब तक के चुनाव के बाद हो रहे इस इस चुनाव का जायज़ा लें तो ज्ञात होगा कि मुस्लिम मतदाताओं में अब जागरूकता बढ़ी है।

केवल राष्ट्रीय मुद्दों पर ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी मुस्लिम नज़रिए में बड़ा बदलाव नज़र आया है। अब वह शाहरुख़ खान या अन्य किसी मुस्लिम की विदेशी एयरपोर्ट की रूटीन चेकिंग में हुए कथित भेदभाव को लेकर सड़कों पर नहीं उतरता। उन्मादी भीड़ के हाथों मारे गए समाज के लोगों के मुद्दे पर आहत होकर भी खुद क़ानून हाथ में न लेकर क़ानून का सहारा लेता है। इस तब्दीली का असर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भारतीय मुसलमानों की प्रतिक्रिया में नज़र आता है। ईरान, इराक़, सीरिया, अफ़गानिस्तान, फ़िलीस्तीन या किसी भी अन्य मुस्लिम देश की घटनाओं को लेकर मुस्लिम समाज अब हिंसक होकर यहां सड़कों पर नहीं आता। उदाहरण के लिए फ़िलीस्तीन के मुद्दे पर मुस्लिम युवावर्ग, छात्र और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबक़ा 'हेट इस्राइल कैंपेन' चलाने के बजाय मुसलमानों को समझाता है कि फ़िलीस्तीन पर हंगामा करने से कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि उसकी दुर्दशा का कारण कोई और नहीं बल्कि फ़िलीस्तीनी नेतृत्व और उस नेतृत्व में हुआ विभाजन है। इस ताक़तवर तबक़े ने खुलकर और सामने आकर इस्लाम के नाम पर भड़काए गए मुस्लिम नौजवानों को समझाया है कि जिस मुद्दे को लेकर एशिया उपमहाद्वीप का मुसलमान इतना भावुक और संवेदनशील हुआ जा रहा है, दरसल उस विवाद को ख़त्म करने में ख़ुद अरब मुल्कों की कोई रुचि नहीं है। इसका असर देखने को मिल रहा है। मुस्लिम युवा अब भावनात्मक मुद्दों के बजाए व्यावहारिक और मूलभूत समस्याओं से जुड़े मुद्दों को उठाता है। यह एक बड़ा संकेत है मुसलमानों की बदलती सोच का, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।