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बेमानी है जिहाद की संकल्पना / सैयद सलमान
Friday, April 5, 2019 - 10:11:55 AM - By सैयद सलमान

बेमानी है जिहाद की संकल्पना / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 05 04 2019

जिहाद, आतंकवाद, ट्रिपल तलाक़, ‘दारुल हरब’ और ‘दारुल इस्लाम’ जैसे अनेक मुद्दों की वजह से इस्लाम और मुसलमानों को लेकर देश ही नहीं विदेशों में भी शक़ और नफ़रत का माहौल है। कुछ हद तक ख़ुद मुस्लिम बुद्धिजीवी भी मानते हैं कि ऐसा चंद कट्टरपंथी मुसलमानों की सोच और उनके द्वारा गढ़े गए इस्लामी कानून का नतीजा है, जबकि सही इस्लाम शांति और अमन का मज़हब है। क़ुरआन में यह बात स्पष्ट रूप से इंसानों से मुख़ातिब होकर कही गई है। हालाँकि कितने मुसलमान हैं जो तर्जुमे के साथ क़ुरआन पढ़ते हैं, यह शोध का विषय है। उस पर तुर्रा यह कि बहस मुबाहसे में ग़ैर-मुस्लिमों को क़ुरआन पढ़ने की नसीहत करते सैकड़ों स्वनामधारी मौलवी हज़रात मिल जाएंगे। दरअसल इस पूरी क़वायद और इस्लामीकरण को लागू करने की शुरुआत ‘दारुल हरब’ और ‘दारुल इस्लाम’ जैसे दो इस्लामी नज़रिये की वजह से होती है जिसे समझना ज़रुरी है।

पुरातन इस्लामी न्यायविदों के अनुसार विश्व के दो समूह हैं, पहला 'दारुल इस्लाम' यानि इस्लाम का घर और दूसरा 'दारुल हरब' यानि युद्ध भूमि। 'दारुल इस्लाम' में ऐसे तमाम मुस्लिम बहुल इलाक़े आते हैं, जहाँ इस्लाम का शासन चलता है। सभी इस्लामिक देश इस परिभाषा के तहत आते हैं। जबकि 'दारुल हरब' में अन्य आस्थाओं वाले अथवा एकेश्वरवाद को नहीं मानने वाले लोगों का बहुमत होता है अर्थात ग़ैर-इस्लामिक देश, जहां शरीयत क़ानून नहीं चलता। यद्यपि क़ुरआन और हदीस में इस प्रकार की कोई संकल्पना मौजूद नहीं है। यह सरासर आरंभिक काल के मुस्लिम मौलवियों के दिमाग़ की उपज है। वर्षों से मुस्लिम समाज के कुछ कट्टरपंथी उलेमा और ग़ैर-मुस्लिमों ने यह प्रचारित कर रखा है कि हिंदुस्तान चूँकि 'दारुल हरब' है और उसे कट्टरपंथी मुसलमान 'दारुल इस्लाम' में परिवर्तित करना चाहते हैं, इसलिए इस्लाम फैलाने के लिए सदा आक्रमण करने की जुगत मे रहते हैं। इसी को आधार बनाकर इस्लाम का परचम फहराने के नाम पर जगह-जगह आतंकी कार्रवाई की जाती है। इस प्रकार की भड़काऊ और तथ्यहीन शिक्षा देश के भोले-भाले ग़ैर-मुस्लिमों और कट्टरपंथी मुसलमानों को दी जाती रही है। ऐसा करते हुए बेबुनियाद भय का माहौल बनाकर नफ़रत की खेती को खाद-पानी दिया जाता रहा है। मुसलमानों को दंगों का इतिहास बताकर उनके नौजवानों को बरग़लाया जाता रहा है। अशिक्षित मुसलमान ऐसे बहकावे में आते भी हैं। ग़ैर-मुस्लिम समाज भी विश्व में फैले आतंकी संगठनों की करतूतों से इस बात पर यक़ीन कर लेते हैं।

किसी क्षेत्र को 'दारुल हरब' का नाम देना एक सोच है और फ़िक़्ह या सोच मुसलमानों के लिए केवल वही मान्य है जो पवित्र क़ुरआन और हदीस की शिक्षाओ के अंतर्गत आए। शेष मुस्लिम समाज के बड़े से बड़े पुरोधा चाहे आज कुछ भी कह लें, क़ुरआन और हदीस के अलावा कही गई कोई भी बात मुस्लिम समाज के लिए कोई महत्व नहीं रखती। 'दारुल हरब' को 'दारुल इस्लाम' में बदलने के लिए चूँकि जंग की ज़रुरत है, और सत्य तो ये है कि इस्लाम कभी भी ख़ुद कोई जंग शुरू करने की इजाज़त नही देता। इस्लाम की सीख है कि किसी बेगुनाह का क़त्ल गोया पूरी इंसानियत का क़त्ल है। पवित्र क़ुरआन में बड़े स्पष्ट शब्दों में लिखा है,'ला इकराहा फ़िद्दीन' यानि 'धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं' -(अल-कुरआन, २:२५६)। तो क्या वर्तमान के मुल्ला-मौलवी अल्लाह और पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद साहब से बड़ी सोच रखते हैं? ऐसा तो सोचना भी शिर्क और हराम है। तो फिर किस बुनियाद पर मनगढ़ंत परिभाषाएं गढ़कर मुसलमानों को नफ़रत का निशाना बनने पर ख़ुद मुस्लिम उलेमा मजबूर कर रहे हैं? क्या मुसलमान इस आयत को भूल गया, 'लकुम दीनकुम वलियदीन' यानि 'मेरा दीन मेरे लिए, तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए' - (अल-कुरआन, १०९:६)। यानि पवित्र क़ुरआन की इस सीख पर क़ायम मोहम्मद साहब को इस्लाम के विस्तार में तलवार की नोक का सहारा लेना कत्तई गवारा नहीं था। मुसलमानों के जोश को उन्होंने बिल्कुल उचित नहीं माना और हिंसा से परहेज़ करने की हिदायत की। पैग़ंबर के वक़्त में इस्लाम संपूर्ण रूप से शांति प्रिय व आधुनिक धर्म था। ज़ुल्मों से तंग आकर मोहम्मद साहब की मक्का शरीफ़ से हिजरत और शक्तिशाली हो जाने के बावजूद अपने दुश्मनों का बिना लहू का एक क़तरा बहाए मक्का में वापसी की घटनाएं इसका सबूत हैं। लेकिन मोहम्मद साहब और उनके प्रिय सहाबियों की वफ़ात के बाद कालांतर में इस्लाम को रूढ़िवाद की ओर मोड़ने की हर चंद कोशिश की गई।

एक बात और ग़ौर करने वाली है कि यदि 'दारुल हरब' को 'दारुल इस्लाम' में बदलने की बात तर्कसंगत होती और सभी ग़ैर-मुस्लिम-देशों पर जबरन इस्लाम फैलाने के लिए आक्रमण करना या जिहाद करना मुस्लिम अपना कर्तव्य समझते तो उन्होंने मोहम्मद साहब के जीवनकाल मे ही हिंदुस्तान पर आक्रमण क्यों नहीं किया? जबकि अरब के लोग तो बहुत पहले से यहां आया-जाया करते थे। इस बात को गाँठ बांधकर रख लें कि प्रामाणिक भारतीय उलेमा ने जंग से संबंधित किसी भी हिजरत और जिहाद की अवधारणा का समर्थन नहीं किया है, जिनका संबंध 'दारुल हरब' से जोड़ दिया गया हो। मुसलमानों को यह समझना होगा कि हिंदुस्तान का संविधान मुसलमानों सहित सभी धार्मिक बिरादरियों को अपने धर्म पर अमल करने की पूरे तौर पर आज़ादी देता है। कभी-कभी साज़िशन धार्मिक दुर्भावना से जुड़ी कोई स्थानीय घटना, अपवादिक दुर्घटना या जातीय दंगों की बुनियाद पर अस्थायी तौर पर संवैधानिक अधिकारों का हनन होता हुआ महसूस हो, लेकिन देश का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता के लिए वास्तविक अर्थ में सभी देशवासियों के लिए एक समान प्रतिबद्ध है। इसलिए, किसी भी वैचारिक पहलू से और यहाँ तक कि इस इस्लामी परिभाषा के अर्थ में भी इस देश को 'दारुल हरब' नहीं क़रार दिया जा सकता। ऐसा करना सिवाय मूर्खता के कुछ नहीं है। हालांकि दंगों जैसी घटनाओं पर भी अंकुश लगाना और इस सवाल पर गंभीर होना भी वक़्त की ज़रुरत है। इसके बावजूद किसी भी आतंकवादी संगठन या विदेशी जिहादी जमात को ‘मुसलमानों के रक्षक’ या ‘इस्लाम के रक्षक’ होने का दावा करने का कोई हक़ नहीं है और न उन्हें देश के क़ौमी मामलों में हस्तक्षेप करने की किसी क़ीमत पर इजाज़त दी जा सकती है।

मुस्लिम समाज के दो बड़े मकतबे फ़िक़्ह बरेलवी और देवबंदी के दो बड़े रहनुमाओं की बातों को शायद आम मुसलमान आसानी से समझ सके। प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान और भारत में बरेलवी मकतबे फ़िक़्ह के बानी मौलाना अहमद रज़ा खान उर्फ़ आला हज़रत ने अपनी किताब 'ई'लामुल आ'लाम बि'अन्ना हिन्दुस्तान दारुल इस्लाम' में स्पष्ट लिखा है कि 'भारत दारुल हरब नहीं है बल्कि दारुल इस्लाम है, क्योंकि यहाँ मुस्लिम नागरिकों को स्वतंत्र रूप से अपने धार्मिक अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए एक शांतिपूर्ण माहौल प्रदान किया गया है।' अब बात देवबंदी मकतब-ए-फ़िक़्ह की। वर्ष १९५० में दारुल उलूम देवबंद ने एक अहम फ़तवा जारी किया था, जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया कि भारत ‘दारुल सलाह’ या ‘दारुल मुआहेदा’ है अर्थात भारत सुलह व अमन और समझौते की सरज़मीन है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के संस्थापक, स्वतंत्रता सेनानी और शेख़ अल-इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उर्दू में लिखी अपनी किताब 'मुत्तहिदा क़ौमियात और इस्लाम' (इस्लाम और संयुक्त राष्ट्रीयता) में द्विराष्ट्रीय नज़रिये के ख़िलाफ़ क़ुरआन और हदीस के विभिन्न हवाले पेश करते हुए साबित किया है कि मुसलमान और हिंदू एक क़ौम हैं। उन्होंने दलील दी है कि मज़हब सार्वभौमिक है और इसे क़ौमी सीमा के अंदर सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होंने स्पष्ट कहा कि कौमियत का मामला भौगोलिक है, और मुसलमानों को अपने ग़ैर-मुस्लिम बिरादरान-ए-वतन भाइयों सहित अपनी मातृभूमि के साथ वफ़ादार होना ज़रुरी है।

दीन के मामलों में आपस के कई विरोधाभासों के बावजूद राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रश्न पर सम्माननीय मुस्लिम विद्वानों का एक मत होना यह दर्शाता है कि हमारे देश में जिहाद की संकल्पना ही बेमानी है और मुजाहिदीन बनने की बात पूरी तरह ग़ैर-इस्लामी। ज़रुरत इस बात की है कि हिंदू-मुसलमानों के बीच जमी शक़, शुब्हे, अविश्वास और नफ़रत की गाँठ को ढीला करने की कोशिश तेज़ की जाए जो हिंदू और मुसलमान होने की वजह से उनमें अलग होने का एहसास भरती रहती हैं। इसलिए मुसलमानों को किसी बहकावे में आए बिना अपनी, अपने क़ौम की और बिरादरान-ए-वतन के साथ मिलकर राष्ट्र की तरक़्क़ी में लगना चाहिए। बाक़ी सब बातें फ़िज़ूल हैं।