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सियासी जुमलों में न फंसे मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, February 15, 2019 - 10:12:12 AM - By सैयद सलमान

सियासी जुमलों में न फंसे मुसलमान / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 15 02 2019

धीरे-धीरे देश में लोकसभा चुनाव २०१९ की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। एनडीए बनाम यूपीए के बजाय भाजपा बनाम महागठबंधन के आसार बन रहे हैं। अपने-अपने पुराने साथी दलों को साथ रखते हुए नए साथी बनाने की क़वायद हो रही है। राष्ट्रीय दलों के बजाय प्रादेशिक दलों के बीच आपसी गठबंधन का ऐलान अधिक हो रहा है। क्षेत्रीय दलों की भूमिका पहले के मुक़ाबले और भी मज़बूत होते जाने के बाद से ही ऐसे समीकरण बनने लगे हैं। मान-मनव्वल का दौर चल रहा है। चुनाव की तैयारियों के साथ ही राजनैतिक दल मुस्लिम मतों को साधने की रणनीति पर भी जुट गए हैं। कथित सेक्युलर दलों द्वारा मुस्लिम मतों को ध्यान में रखकर गठबंधन या तो किए जा रहे हैं या फिर तोड़े जा रहे हैं। इधर बीजेपी ने पिछले दिनों दो दिवसीय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक सम्मेलन आयोजित कर मुस्लिम समाज को अपने पाले में करने का प्रयास किया। सम्मलेन में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेताओं ने यह संदेश देने का प्रयास किया कि कांग्रेस नीत पिछली सरकारों ने अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुस्लिम समुदाय को डराने का काम किया, जबकि मोदी सरकार सबका साथ-सबका विकास के मूलमंत्र पर काम कर रही है। मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की गई कि मोदी सरकार में अल्पसंख्यक समाज पूरी तरह महफ़ूज़ हैं।

ज़ाहिर है बीजेपी के अल्पसंख्यक सम्मलेन के बाद कांग्रेस को भी नींद से जागना था इसलिए मुसलमानों को साधने के लिए उसने भी आनन-फ़ानन में अल्पसंख्यक अधिवेशन कर डाला। कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुस्लिम समाज की नाज़ुक नब्ज़ को छूने का काम किया। राहुल गांधी की मुसलमानों को यह बताने की कोशिश रही कि आरएसएस देश को नागपुर से चलाना चाहता है। मोदी और उनकी कोर टीम की चाहत है कि देश के संविधान को किनारे कर दिया जाए। दरअसल राहुल की टीम को यह विश्वास है कि इस तरीक़े से वह मुस्लिम मतों को अपने साथ रख पाने में कामयाब होंगे इसलिए संवेदनशील मुद्दों को हवा दी जा रही है। भाजपा राम मंदिर के मुद्दे को उठा रही है जिसे आस्था का विषय जानते हुए कांग्रेस छूने से परहेज कर रही है। उसकी तोड़ के लिए कांग्रेस ट्रिपल तलाक़ को ख़त्म करने की बात कर रही है। हालांकि मुस्लिम मतों को लेकर कांग्रेस की अन्य कथित सेक्युलर दलों के साथ खींचतान तय है।

बात अगर मुस्लिम मतों की है तो पिछली जनगणना के आधार पर देश में मुसलमानों की आबादी १४.२३ फ़ीसदी बताई गई है। आंकड़ों पर अगर गौर करें तो ज्ञात होगा कि देश भर में २१८ लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां क़रीब १० फ़ीसदी से अधिक और इसमें से भी ७० सीटें ऐसी हैं जिन पर २० फ़ीसदी से अधिक पंजीकृत मुस्लिम मतदाता हैं। जम्मू-कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में हैं। इन राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसी सीटें हैं जहां मुसलमान अच्छी-ख़ासी तादाद में हैं। इन राज्यों के मुस्लिम मतों से नतीजों पर असर पड़ता रहा है। इन्हीं राज्यों में मुस्लिम वोटरों की पहली पंसद कांग्रेस, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, पीडीपी, नेशनल कांफ़्रेंस, बहुजन समाज पार्टी, राट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, टीएमसी, टीआरएस जैसे राजनीतिक दल हैं। इन दलों की रणनीति ही कुछ ऐसी बनाई जाती है कि मुस्लिम समाज उनके क़ब्ज़े में रहे। और ऐसा नहीं है कि ये दल अपनी मंशा में कामयाब नहीं होते। मुस्लिम समाज भी उनके झांसे में ही रहता है। इन दलों के ज़रिये मुस्लिम मुद्दों को पूरी शिद्दत से इस तरह उठाया जाता है कि मुस्लिम समाज भेड़ बकरियों की तरह उनके पाले में आ जाता है। हालांकि कुछ हद तक अब मुस्लिम समाज थोड़ा सजग हुआ है लेकिन ऐसे दलों की जकड़ से अब भी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पाया है।

आगामी चुनाव की तैयारियों के बीच अगर बात पिछले चुनाव की करें तो २०१४ के लोकसभा चुनाव में विभिन्न दलों से २२ मुस्लिम सांसद जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। यानी भारतीय राजनीति के इतिहास में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व इस बार सबसे कम था। हालांकि यूपी के कैराना उपचुनाव में जीतने के बाद लोकसभा में २३ मुस्लिम सांसद हो गए थे, लेकिन पिछले दिनों बिहार के किसनगंज से जीतकर आने वाले मौलाना असरारुल हक़ क़ासमी के आकस्मिक निधन के बाद यह आंकड़ा फिर वहीं का वहीं पहुँच गया। इससे पहले १९५७ में २३ मुस्लिम सासंद चुनकर आए थे। जबकि सबसे ज़्यादा मुस्लिम सांसद १९९० में जीते थे। उस वक्त ४९ मुस्लिम सांसद जीतने में सफल रहे थे। मुस्लिम समाज उस इतिहास को लगता तो नहीं कि दोबारा दोहरा पाएगा। इसके अपने कारण हैं। मुस्लिम समाज का उन दलों के ट्रैप में आना सबसे बड़ा कारण है जो सिर्फ़ मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते आए हैं। वोट लेकर मुस्लिम समाज को दिया क्या गया, यह तो शोध का विषय है। हाँ, मुस्लिम समाज की स्थिति किस क़दर बदतर बना दी गई है यह किसी से छुपा नहीं है। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट इस बात का सबूत है। रिपोर्ट बताती है कि आज़ादी के इतने साल बाद भी भारतीय मुसलमानों की हालत दलितों व आदिवासियों से भी गई-गुज़री है। मुसलमानों में साक्षरता राष्ट्रीय औसत से काफ़ी कम है। ऐसे माहौल में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि २०१९ में मुस्लिमों सांसदों की संख्या बढ़ती है या फिर २०१४ के चुनाव से भी कम हो जाएगी।

चुनाव से पहले पूरी मुस्लिम राजनीति असुरक्षा के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती है या जानबूझकर घुमा दी जाती है। ख़ौफ़ का ऐसा माहौल बनाया जाता है जिसके नतीजे में मुस्लिम समाज ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। राजनैतिक दलों के बनाए गए जाल में वह ऐसा फंसता है कि उसे कुछ राजनीतिक पार्टियां अपनी दुश्मन लगने लगती हैं। और इसी राजनैतिक चक्रव्यूह में फंसने के बाद अपनी दुश्मन जमात के ख़िलाफ़ मुस्लिम समाज के लोग अपना सियासी दोस्त खोजने लगते हैं। यह चक्रव्यूह कुछ ऐसा बनता है कि मुस्लिम समाज उलझकर उन्हीं दलों की गोद में बैठ जाता है जिन्होंने उनके साथ सोची समझी साज़िश रची होती है। यह कोई इस चुनाव की बात नहीं है बल्कि पिछले कई दशकों से ऐसा होता आया है।

एक और बात ग़ौर करने की है। जब-जब सियासत में मुस्लिम समाज का ज़िक्र होता है वह अमूमन दो ही संदर्भों में होता है। एक, सांप्रदायिकता और दूसरा आतंकवाद। देश की सियासत में इससे अलग मुस्लिम समाज की कोई पहचान नहीं बन पाई है। देश में संविधान के आधार पर जैसे हर धर्म से जुड़े व्यक्ति की पहचान होती है वैसे ही मुस्लिम समाज की पहचान भी एक नागरिक के रूप में होनी चाहिए। लेकिन मुस्लिम समाज को वोट बैंक के रूप में तब्दील कर दिया गया है। तमाम दलों के राजनैतिक सूरमाओं को पता है कि जब तक मुस्लिम समाज खुद को असुरक्षित महसूस करता है उसे वोट बैंक बनाकर रखा जा सकता है। जैसे ही मुस्लिम समाज खुद को असुरक्षित मानना बंद कर देगा वह वोट बैंक नहीं रह जाएगा और फिर उनका इस्तेमाल भी नहीं हो पाएगा। इसलिए मुस्लिम समाज में येन-केन-प्रकारेण असुरक्षा की भावना क़ायम रखी जाती है ताकि सियासत के चूल्हे पर वोट बैंक की रोटी आसानी से सेंकी जा सके। इसलिए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर न अमल होता है, न किया जाता है और न ही कोई पार्टी इसके लिए आंदोलन करती है। आज ज़रूरत इस बात की है कि मुस्लिम समाज स्थापित राजनीति के मायाजाल और सियासी जुमलों में न फंसे। मुस्लिम समाज को सियासी बहकावे में आना बंद करना ही होगा। मुस्लिम समाज को सभी राजनैतिक दलों से सीधे अपने सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक सरोकार पर सवाल करना चाहिए। बिना किसी भेड़चाल में फंसे ही मुस्लिम समाज ऐसा कर सकता है। मुस्लिम समाज यह तय कर ले कि जो भी पार्टी उसकी ज़रूरतें पूरी करने का वचन दे, वह उसको ही वोट देगा। वोट बैंक की परंपरागत मिथ्या को तोड़ना ही मुस्लिम समाज के हित में है, वरना ध्रुवीकरण की राजनीति उसे सच्चर समिति की रिपोर्ट से भी बदतर स्थिति में पहुंचा देगी। लेकिन सवाल तो यही है कि क्या मुसलमान इस बात को समझने के लिए तैयार है?