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इस्लाम की तालीम- देश के लिए क़ुर्बान हो जाना / सैयद सलमान
Friday, February 1, 2019 - 9:12:26 AM - By सैयद सलमान

इस्लाम की तालीम- देश के लिए क़ुर्बान हो जाना / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 01 02 2019

यूँ तो गणतंत्र दिवस अम्न-ओ-अमान से बीत गया लेकिन उस से पहले देश के महत्वपूर्ण हिस्सों में आतंकी कार्रवाई को अंजाम देने से पहले ही कई गिरफ्तारियां हुईं। गणतंत्र दिवस से पहले महाराष्ट्र एटीएस ने आतंकी संगठन आईएसआईएस से संबंध रखने और आतंकी साज़िश को अंजाम देने की फ़िराक़ में लगे ९ संदिग्ध युवकों को गिरफ़्तार किया। उनके पास से केमिकल पाउडर, एसिड पाउडर , धारदार हथियार, हार्ड ड्राइव, मोबाइल फोन, सिम कार्ड ज़ब्त किये गए। यह अभियान अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी वाले मुंब्रा शहर और औरांगाबाद में चलाया गया। ताज्जुब की बात यह है कि एक को छोड़कर सभी की उम्र सिर्फ़ १८ से २२ वर्ष की उम्र के बीच है। उनमें से एक नाबालिग़ है, जिसकी उम्र 17 साल बताई जा रही है। एटीएस को शक़ है कि ये लोग किसी वैश्विक आतंकी समूह के स्लीपर सेल का हिस्सा हैं। जांच में पाया गया कि ये लोग केमिकल और पाउडर से ज़हरीला मिक्सचर बनाकर पब्लिक समारोह के खाने या पानी में मिलाकर नरसंहार करने की फ़िराक़ में थे। इस से पहले ख़बर आई थी कि कुंभ में केमिकल अटैक को लेकर प्रशासन ने अलर्ट जारी किया था। इसलिए जांच एजेंसियों को शक हैं शायद उनका निशाना कुंभ था। इन लोगों ने अपने ग्रुप का नाम 'उम्मत-ए-मोहम्मदिया' रखा था। यानी पैगंबर मोहम्मद साहब के उम्मती। यह अपने आप में ही विरोधाभास है कि जिस मोहम्मद साहब को उनके ख़ुलूस, मोहब्बत और अम्न के पैग़ंबर के रूप में जाना जाता हो उनके नाम पर आतंकी संगठन के नाम रखे जा रहे हैं। कच्ची उम्र में ही आतंकवाद का रास्ता चुनने वाले इन नौजवानों की सोच मुस्लिम समाज के लिए चिंता का विषय है।

इसी तरह गणतंत्र दिवस से पहले दिल्ली में हमले की योजना बना रहे आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के दो आतंकवादियों को गिरफ़्तार किया गया था जिससे एक संभावित आतंकी हमला टाला जा सका। जैश-ए-मोहम्मद के एक सदस्य ने गणतंत्र दिवस समारोह के समय दिल्ली के भीड़-भाड़ वाले इलाके में हमले की योजना बनाई थी और दूसरे ने दिल्ली में लक्षित जगहों की रेकी की थी। देश में राजधानी समेत कई अहम हिस्‍सों में महत्वपूर्ण त्यौहारों, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय समारोहों से पहले आतंकी घटनाओं की शंका जांच एजेंसियां व्यक्त करती हैं और फिर सतर्कता बरतते हुए गिरफ़्तारियां भी अमल में आती हैं।

इन आतंकियों की तमाम करतूत अधिकतर धर्म की आड़ में होती है। यह जिहाद को अपना हथियार बताते है। अपने नफ़्स के साथ जद्दोजेहद को जिहाद बताने के बजाय हिंसा को जिहाद बताकर न सिर्फ वे देश में नफ़रत का माहौल बनाते हैं बल्कि मुस्लिम समाज को भी बदनाम करते हैं। जिहाद की मनगढ़ंत व्याख्या का नतीजा यह हुआ है कि देश-विदेश में मुस्लिम समाज पूरी तरह से अलग-थलग करने की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। देश का बड़ा तबक़ा अब भी मुस्लिम समाज को अपना मानकर उनके भीतर से कट्टरपंथी ताकतों के ख़िलाफ़ खड़ा करने को महत्व देता है। कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम समाज इसमें रोड़ा बनते हैं। आतंकियों का समर्थन न सिर्फ़ दुनियावी बल्कि दीनी नज़रिये से भी ग़लत ही कहा जाएगा। आख़िर बेक़सूरों का लहू बहाना कैसे किसी मज़हब की तालीम हो सकती है। इस्लाम आख़िर कैसे बेक़सूरों की हत्या को जायज़ बता सकता है जबकि इस्लाम का अर्थ ही सलामती और शांति के है। आतंकी अगर कुंभ के श्रद्धालुओं को रासायनिक ज़हर देकर मारना चाहते थे या फिर गणतंत्र दिवस पर बम, गोले या गोलियां बरसाना चाहते थे तो कैसे वे इस्लाम के मानने वाले हुए। यह कृत्य सरासर ग़ैरइस्लामी है। मुस्लिम उलेमा और मुफ़्तियान-ए-कराम को इस संबंध में अपने बयान और फ़तवे जारी करने चाहिए।

एक तरफ़ तो आतंकी संगठन से जुड़े लोग गिरफ़्तार हो रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ़ जम्मू-कश्मीर के गवर्नर सत्यपाल मलिक का कहना है कि हर मौत उनके लिए पीड़ादायक है। एक आतंकी की मौत पर भी उन्हें बेहद दुःख होता है। उनका मानना है कि आतंकियों को मारने से कश्मीर समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। इस से पहले जम्मू कश्मीर के पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह भी कह चुके हैं कि आतंकवाद रोधी अभियान में किसी की भी मौत हो, चाहे वह सुरक्षा कर्मी हो, आतंकवादी हो, या आम नागरिक हो, उस पर गर्व नहीं किया जा सकता। इसे सफलता का पैमाना नहीं माना जा सकता। यानी आतंकवादियों को लेकर अब भी बड़े ज़िम्मेदारों का यह मानना है कि आतंकियों को रास्ते पर लाया जाना चाहिए। पर क्या ऐसा मुमकिन हो पाता है। अक्सर धर्म की चाशनी में नफ़रत के ज़हर की मिलावट कर बेक़सूरों के लहू का स्वाद चख चुके और आतंक की राह पर निकले नौजवानों को ऐसी भावुक बातें रास नहीं आतीं। उन्हें केवल उनके वही आक़ा भाते हैं जिन्होंने उन्हें बेक़सूरों की लाशों पर से जन्नत का रास्ता दिखाया हो। नेकियों के दम पर जन्नत हासिल करने में कठिन तपस्या जो है। हथियारों के दम पर लाशें बिछा देना शायद ऐसे नकारात्मक लोगों को आसान लगता हो।

हालाँकि कुछ अपवाद अब भी आस जगाते हैं। याद कीजिए इसी गणतंत्र दिवस से पहले जब धड़ाधड़ गिरफ़्तारियां हो रही थीं तब गणतंत्र दिवस पर देश के एक जांबाज़ को मरणोपरांत अशोक चक्र से नवाज़ा जा रहा था। इस बार के गणतंत्र दिवस पर भारतीय सेना के लांस नायक नज़ीर वानी को मरणोपरांत अशोक चक्र अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनकी मां और पत्नी महजबीन को ये सम्मान सौंपा। सेना के शहीद लांस नायक नज़ीर अहमद वानी पहले आतंकवादी थे। आतंकवाद का गलत रास्ता छोड़ वानी सेना में शामिल हुए और अपनी जांबाज़ी, बहादुरी, देशप्रेम के जज़्बे और अपने आदर्श कर्म से मरणोपरांत अशोक चक्र अवॉर्ड के हक़दार बने। ज्ञात हो कि अशोक चक्र शांतिकाल में दिया जाने वाला सेना का सबसे बड़ा सम्मान है। आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अभियानों में उनकी बहादुरी और बलिदान को देखते हुए पहले भी उन्हें दो बार सेना मेडल मिल चुका था। लांस नायक नज़ीर पहले कश्मीरी हैं जिन्हें अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। हालाँकि अब तक सेना में कई सैनिकों को अशोक चक्र से सम्मानित किया गया है, लेकिन ये पहला मौक़ा है जब आतंकी से सैनिक बने किसी जवान को इतने बड़े सम्मान से नवाज़ा गया हो।

अभी ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे वानी की शहादत को। २५ नवंबर २०१८ की बात है जब आतंकवादी से देशभक्त बने नज़ीर अहमद वानी ने आतंकवादियों से लड़ते हुए अपनी जान वतन के नाम क़ुर्बान कर दी। वे आतंकियों की सभी चालों से पूरी तरह से परिचित थे। उस दिन घाटी के शोपियां इलाक़े में आतंकियों पर ज़ोरदार आक्रमण करते हुए नज़ीर वानी ने एक आतंकवादी को मार गिराया और अन्य आतंकवादियों के सामने दीवार बनकर डटे रहे। वानी की इस हिम्मत और हौसले के दम पर सुरक्षाबलों ने सभी ६ आतंकवादियों को मार गिराया। अपने साथियों की जान बचाने के लिए वह दहशतगर्दों की गोलियों का निशाना बने और शहीद हो गए। यूँ तो देश के लिए पहले भी कई जवानों ने अपनी जान की बाज़ी लगाई, शहादत का जाम चखा और देश का नाम रोशन किया लेकिन शहीद नज़ीर अहमद वानी की कहानी सबसे जुदा है। सबसे जुदा इसलिए, क्योंकि उन्होंने आतंक की राह छोड़कर देशप्रेम की राह चुनी। कई ऐसे आतंकवादी हैं जिन्होंने आतंकवाद का रास्ता छोड़कर सामान्य जीवन शुरू किया और राष्ट्र की मुख्यधारा में लौटे लेकिन नज़ीर अहमद वानी ने सामान्य जीवन के बजाय अपने लिए प्रायश्चित का रास्ता चुना। उन्होंने अपनी बंदूक का रुख़ गुनहगारों की तरफ़ मोड़ दिया। अपनी बहादुरी का सही इस्तेमाल करने का बीड़ा उठाया और देश की ख़ातिर शहीद हो गए। नज़ीर अहमद वानी ने सही मायने में 'उम्मत-ए-मोहम्मदिया' होने का अर्थ समझाया। तभी तो जब नज़ीर के शहीद होने की ख़बर आई तब उनकी पत्नी महजबीन की आंखों से एक आंसू तक नहीं छलका। आतंकी मौत मरने वालों के परिजनों का सर शर्म से झुका होता है जबकि नज़ीर अहमद वानी के परिवार का सर गर्व से ऊँचा हो गया। इतना ही नहीं 'शहीद नज़ीर' ने एक नई 'नज़ीर' पेश कर वानी परिवार, कश्मीर और देश के साथ ही सही इस्लाम का सर भी गर्व से ऊँचा कर दिया। उन्होंने साबित कर दिया कि आतंक का इस्लाम से कोई संबंध नहीं है, जबकि देश के लिए क़ुर्बान हो जाना ही सही इस्लाम की तालीम है।