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एक फ़तवा आतंकवाद के ख़िलाफ़ हो / सैयद सलमान
Friday, November 23, 2018 - 11:19:10 AM - By सैयद सलमान

एक फ़तवा आतंकवाद के ख़िलाफ़ हो / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार: दोपहर का सामना 23 11 2018


मुस्लिम समाज में फ़तवों का अहम रोल रहा है। अब तक रोजमर्रा या आम समस्याओं को लेकर फ़तवा मंगवाने के चलन के बीच पहली बार चुनाव पर फ़तवा जारी किया गया है। दारूल उलूम देवबंद की स्थापना के १५० वें साल के इतिहास में पहली बार दारूल उलूम के इफ़्ता विभाग से चुनाव पर पूछे गए सवालों पर अपनी राय देने को कहा गया था कि क्या मुसलमान चुनावों में भाग ले सकते है और उन्हें मतदान करना चाहिए? दारुल इफ़्ता से यह भी पूछा गया था कि इस्लाम धर्म में वोट को लेकर शरीयत का क्या कहना है। इस फ़तवे के बिना भी हालाँकि मुसलमान पहले से ही अपने मताधिकार का प्रयोग करता रहा है लेकिन इस मुद्दे पर फ़तवा मंगा कर सियासी हलचल मचाने की कोशिश की गई है। वैसे तो दारूल उलूम सियासी गतिविधियों और किसी पार्टी या उम्मीदवार के समर्थन या विरोध की कभी भी कोई अपील जारी नहीं करता है, लेकिन पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा के चुनावों और २०१९ के लोकसभा के आम चुनावों को लेकर दारूल उलूम ने पहली बार फ़तवा जारी कर मुस्लिमों से कहा है कि वे मतदान अवश्य करें, लेकिन ऐसे उम्मीदवारों को वोट ना डालें जो झूठे, मक्कर और जालसाज़ हों। फ़तवे में कहा गया कि वोट डालते वक़्त मुस्लिम समाज के लोग यह ध्यान अवश्य रखें कि उम्मीदवार अच्छी सोच का हो, साफ़-सुथरा और भरोसेमंद हो और उससे किसी भी तरह का नुकसान पहुंचने का डर ना हो।

सवाल यह है क्या इसके लिए किसी फ़तवे की जरूरत थी? फ़तवे में वही सब कहा गया है जो देश के आम नागरिक को करना चाहिए। लेकिन एक तरह से यह फ़तवा उन लोगों के लिए छुपा संदेश भी है कि अब राजनैतिक भेड़चाल में किसी एक दल का पिछलग्गू बनने के बजाय उस प्रत्याशी को वोट दिया जाए जो भरोसेमंद हो और उसकी सोच अच्छी हो। वह प्रत्याशी किसी भी दल का हो सकता है। ग़नीमत है दारुल इफ़्ता ने केवल मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट देने का फ़रमान जारी नहीं किया। हालाँकि कुछ मुस्लिम नेता अपने आप को सियासी मुफ़्ती साबित करते हुए केवल मुसलमानों को वोट देने की वकालत करते ज़रूर नज़र आते हैं। अब तक मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा तबका ऐसे नेताओं की दलीलों को नकारता रहा है लेकिन कई कट्टरपंथी सोच वाले नेताओं का सियासत में चर्चित होना चंद मुस्लिम कट्टरपंथियों की बेवक़ूफी का नतीजा ही कहा जाएगा। हालाँकि ऐसे विवादित नेताओं के पक्ष में कभी किसी प्रतिष्ठित इस्लामी संस्थान के दारुल इफ़्ता ने फ़तवा नहीं जारी किया यह बात सराहनीय है। लेकिन मुस्लिम एकजुटता के नाम पर होने वाली सभाओं में अक्सर प्रतिष्ठित उलेमा ऐसा बयान ज़रूर देते आये हैं।

कई बार कुछ ऐसे फ़तवे मंगवाए जाते हैं जिस से मुस्लिम समाज की जगहंसाई भी होती है। इससे पहले दारूल उलूम ने महिलाओं के चुनावों में आरक्षण किए जाने के दौरान महत्वपूर्ण फ़तवा जारी करते हुए मुस्लिम औरतों से यह अपेक्षा की गई थी कि वह पर्दे में रहकर चुनाव लड़ें और चुने जाने पर पर्दे में ही रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करें। इस फ़तवे का एक पक्ष तो यह था कि मुस्लिम महिलाएं चुनाव तो लड़ सकती हैं लेकिन उनके लिए सीमा निर्धारित कर दी गई। इस से पहले दारुल उलूम देवबंद ने मुस्लिम महिलाओं का डिज़ाइनर बुर्क़ा पहनने को लेकर भी फ़तवा जारी किया था। दारूल उलूम से सवाल पूछा गया था कि क्या मुस्लिम औरतों को चुस्त और आकर्षक बुर्क़ा पहनना चाहिए। इस पर लंबे विचार के बाद विशेष रूप से गठित मुफ़्तियों की चार सदस्यीय पीठ ने जवाब दिया कि मुस्लिम औरतों को बहुत ज़रूरी होने पर ही घर से बाहर निकलना चाहिए और उन्हें घर से बाहर जाते वक्त ढीले-ढाले कपड़े पहनना चाहिए। चुस्त, तंग और आकर्षक बुर्क़ा पहनकर निकलना ठीक नहीं है। ऐसा बुर्क़ा या लिबास पहनकर महिलाओं का घर से बाहर निकलना जायज़ नहीं है, जिसकी वजह से अजनबी मर्दों की निगाहें उसकी तरफ आकर्षित हों। यही नहीं एक फ़तवे में तो यहाँ तक कहा गया था कि मुस्लिम महिलाओं का फुटबॉल देखना इस्लाम के ख़िलाफ़ है।फ़तवे के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं को फुटबॉल नहीं देखना चाहिए, क्‍योंकि उसमें पुरुष खिलाड़ी के घुटने खुले होते हैं। महिलाओं के लिए तो ग़ैर मर्दों को देखना ही जायज़ नहीं है, फिर घुटने को देखना तो बिल्‍कुल नाजायज़ और हराम है। हालाँकि रोचक तथ्य यह है कि सऊदी अरब में महिलाओं को फुटबॉल मैच देखने की इजाज़त दी गई है।

कभी कभार फ़तवे इतने विवादित और गैर-ज़रुरी होते हैं कि उन्हें आसानी से इस्लामी शैक्षणिक संस्थान से जुड़े दारुल इफ़्ता आसानी से टालकर या फिर सवाल पूछने वाले को सख़्त लहजे में जवाब देकर टाल सकते हैं। जैसे कि केक काटने को एक फ़तवे में नाजायज़ करार दिया गया है। आख़िर केक काटने भर से इस्लाम को क्या ख़तरा हो सकता है। बांह पर टैटू है तो नमाज़ जायज़ नहीं, मुस्लिम महिला रिसेप्शनिस्ट नहीं हो सकती या मोबाइल फोन में पवित्र क़ुरआन की आयतें अपलोड नहीं की जा सकतीं। ये कुछ ऐेसे फ़तवे हैं जिनको लेकर मुसलमानों की जगहंसाई हो चुकी है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कई इलाकों में शादी के दौरान विदाई के समय दुल्हन को मामा गोद में लेकर कार या फिर डोली में बिठाने की पंरपरा के ख़िलाफ़ भी फ़तवा जारी किया गया था। फ़तवा में कहा गया कि शादी के दौरान भांजी बड़ी हो चुकी होती है ऐसे में मामा का गोद में उठाना सही नहीं है। इस्लामिक शरियत की निगाहों में तो इसे तरह की पंरपरा को स्‍वीकार नहीं किया जा सकता। रस्‍म निभाते वक्‍त मामा या भांजी के मन में काम-वासना जाग सकती है। ऐसे में इस तरह की पंरपरा को ख़त्म किया जाना चाहिए। यहाँ यह बता देना भी ज़रुरी है कि मामा अपनी भांजी के लिए महरम होता है। लेकिन इस फ़तवे ने इस पवित्र रिश्ते पर से भी भरोसा उठाने का काम किया। ऐसा ही एक फ़तवा एक युवती के ख़िलाफ़ जारी किया गया जो एक अनाथालय में योग सिखाती है। और यही बात कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों को सहन नहीं हुई। फ़तवे में न सिर्फ योग को बल्कि मुस्लिम महिला के योग सीखने को भी ग़ैर-इस्लामी करार दिया गया। एक फ़तवे में तो मुस्लिम महिलाओं के श्रृंगार करने पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया। इस फ़तवे में मुस्लिम महिलाओं को बाल कटाने, आइब्रो बनाने आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फ़तवे में कहा गया कि ब्यूटी पार्लर जाना अब मुस्लिम महिलाओं के लिए प्रतिबंधित किया जाता है। अर्थात मुस्लिम महिलाओं के सजने-संवरने और श्रृंगार पर पूर्णतया पाबंदी।

मुस्लिम महिलाएं अपने समाज की अनेक रुढ़ीवादी और दमनकारी परंपराओं से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हैं। कुछ मामले ज़रूर शरई दायरे में हल हो सकते हैं लेकिन हर मामले में इस्लाम या दीन की मनमानी व्याख्या कर इस्लाम का ही मज़ाक़ बनाना कहाँ तक जायज है। इस तरह के फ़तवे या फ़रमान मुस्लिम महिलाओं के साथ ही मुस्लिम समाज के लिए भी हंसी का पात्र बनते हैं। किसी समुदाय का कोई भी बेतुका तर्क और मज़हबी क़ानून महिलाओं या आम मुसलमानों के प्रति अन्याय की अनुमति नहीं देता है। इस्लाम की मौलिकता को क़ायम रखने के नाम पर आने वाले इन फ़तवों से समाज का कितना भला होता है यह तो शोध का विषय है लेकिन इतना तो तय है कि इन फ़तवों ने मुसलमानों की साख़ को हास्यास्पद ज़रूर बनाया है।फ़तवा देने वाले इस्लाम के इन तथाकथित झंडाबरदारों को अब कश्मीर के पत्थरबाज़ों, धर्म और जिहाद के नाम पर ख़ून बहाने वालों, अलगाववादियों और आतंकवादियों के ख़िलाफ़ फ़तवे देने की जरुरत है। उन लोगों के ख़िलाफ़ भी फ़तवा जारी होना चाहिए जो अपनी बेटियों को पढ़ाने-लिखाने के आड़े आ रहे हों। ग़रीबों का शोषण करने वालों, मज़दूरों पर ज़ुल्म करने वालों, महिलाओं का अपमान करने वालों, पड़ोसियों को सताने वालों, राह चलते झगड़ने वालों, इस्लाम के नाम पर ग़ैर मज़हब के लोगों के साथ भेदभाव करने वालों के ख़िलाफ़ आख़िर फ़तवे कब आएँगे?