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'अरेंज्ड हलाला' है ग़ैर-इस्लामी / सैयद सलमान
Friday, October 26, 2018 - 10:42:58 AM - By सैयद सलमान

'अरेंज्ड हलाला' है ग़ैर-इस्लामी / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 26 10 2018

जनजागृति लाने की लाख कोशिशों के बावजूद मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते। सबसे हास्यास्पद और विवादास्पद स्थिति ट्रिपल तलाक़ और हलाला को लेकर होती है। तीन तलाक़ और हलाला पर लाख बहस के बाद भी इनसे छुटकारा मिलता नहीं दिख रहा है। कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने, चंद समझदार उलेमा ने और अनेक प्रगतिशील मुसलमानों ने एकमुश्त ट्रिपल तलाक़ और हलाला को पवित्र क़ुरआन की व्याख्या करते हुए सिरे से नकार दिया है। इसके बावजूद ज़ईफ़ हदीसों और कट्टरपंथी उलेमा की लिखी किताबों के हवालों से न तो ट्रिपल तलाक़ रुक रहे हैं न ही 'अरेंज्ड हलाला'। तलाक़ और हलाला का एक ऐसा ही मामला सामने आया है, जिसमें हलाला करने वाला व्यक्ति महिला को तलाक़ ही नहीं दे रहा। निकाह हलाला के बाद ६५ वर्षीय एक बुज़ुर्ग ने अपना इरादा बदलते हुए २८ वर्षीय युवती को तलाक़ देने से इनकार कर दिया है। यानि हलाला करने वाले बुज़ुर्ग का दिल महिला पर आ गया है। अब पहला शौहर परेशान है। महिला ने भी हलाला करने वाले से पीछा छुड़वाने के लिए गुहार लगाई है। यह सारा मज़ाक़ उस महिला के साथ हो रहा है जिसे किसी एक पुरुष ने पहले तो तलाक़ दिया और फिर उस महिला से दोबारा निकाह के लिए किसी दूसरे पुरुष के निकाह में हलाला के लिए दिया गया, जिसकी नीयत अब महिला को लेकर डोल गयी। अब निकाह और हलाला का यह पूरा प्रकरण मुस्लिम समाज के लिए मज़ाक़ का कारण बन गया है। ज्ञात हो कि हलाला के तहत एक तलाक़शुदा महिला को किसी अन्य व्यक्ति से निकाह करना पड़ता है और उसके बाद वह अपने पहले पति के पास लौटने से पहले उससे तलाक़ लेती है।

मामला कुछ यूँ है कि, उत्तराखंड के खटीमा निवासी अक़ील अहमद की बेटी जूही का निकाह मोहम्मद जावेद के साथ २०१० में हुआ था। जूही और जावेद के दो बेटे हुए। बाद में दोनों में लड़ाई-झगड़े होने लगे और नौबत तलाक़ तक पहुँच गई। २०१३ में दोनों का तलाक़ हो गया। बाद में दोनों को ग़लती का अहसास हुआ। दोबारा निकाह के लिए पति-पत्नी ने परिवार की सहमति ली। इस युवती का उत्तराखंड से दूर यूपी के बरेली निवासी ६५ वर्षीय बुज़ुर्ग के साथ हलाला की रस्म के लिए दूसरा निकाह किया गया। पहले तो बुजुर्ग ने हामी भरी कि वह तलाक़ दे देगा लेकिन हलाला के बाद उसकी नीयत बदल गई और उसने तलाक़ देने से इनकार कर दिया। दो अलग अलग पुरुषों से निकाह कर चुकी और इस प्रकरण से काफ़ी परेशान यह युवती किसी तरह से इस बुज़ुर्ग से तलाक़ मिलने का इंतज़ार कर रही है। अब इस पेचीदा केस का समाधान तलाशने के लिए उलमा-ए-कराम युवती को शरई अदालत में जाने का मशवरा दे रहे हैं। युवती को 'ख़ुला' दिलाने की प्रक्रिया का प्रयास भी किया जा रहा है, लेकिन बुज़ुर्ग की ज़िद के सामने यह प्रक्रिया भी उलझ कर रह गयी है। महिला के समर्थन में आगे आए कुछ स्थानीय उलेमा का कहना है कि अगर युवती तलाक़ लेना चाहती है तो यह उसका हक़ है। वह ख़ुला के जरिये अलग हो सकती है। जबकि बरेली के ही दरगाह आला हज़रत के मुफ़्ती ग़ुलाम मुस्तफ़ा रज़वी के अनुसार शरीयत के नियमों के मुताबिक़ हलाला करने वाला जब तक तलाक़ न दे, वह उक्त युवती का शौहर बना रहेगा। हालांकि मुस्लिम महिलाओं को ख़ुला का अधिकार है लेकिन उसके लिए वर्तमान पति की मंज़ूरी भी आवश्यक होती है। यानि स्त्री के सम्मान और चाह की कोई क़द्र नहीं। एक और रोचक और विवादस्पद बात दोनों पक्षों की 'शर्त' पर आकर ठहर गई है। शर्त यह है कि हलाला के दौरान अगर यह कहकर निकाह किया हुआ था कि अगले दिन तलाक़ देंगे तो दोनों का निकाह अपने आप ख़त्म हो गया। लेकिन अगर शर्त नहीं लगाई है तो निकाह में बीवी रहेगी। धर्म के नाम पर यह कितना भोंडा मज़ाक़ है।

हलाला के लिए निकाह करने वाले बुज़ुर्ग का तो पूरा मामला ही विचित्र है। उसका कहना है कि लड़की ने मुझे धोखा दिया है। निकाह होने के बाद लड़की मेरे पास तक नहीं आई। हलाला की रस्म पूरी होने की शर्त है कि जिस से निकाह हुआ है उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना ज़रूरी है। अब वह बुज़ुर्ग बीच बचाव करने वालों से कहता फिरता है कि, मैंने शरीयत के मुताबिक़ निकाह किया है। उसे जब बातचीत के लिए मध्यस्थ बुलाते हैं तो उसका जवाब होता है कि, "जेल चला जाऊंगा लेकिन मामले में बातचीत नहीं करूँगा।" इस एक उदहारण से पता चलता है कि न सिर्फ़ उस बुज़ुर्ग ने बल्कि मुस्लिम समाज के उलेमा और कट्टरपंथी मुसलमानों ने इस्लाम और निकाह जैसे पवित्र मामले को खेल बना रखा है। इस्लाम की ग़लत व्याख्या और मनमानी रस्मों ने आज के दौर में इस्लाम धर्म को हास्य का पात्र बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। समय के साथ सोच और विचारों में बदलाव की अपेक्षा रखने के बजाय घिसीपिटी रस्मों को प्राधान्य देने वाले मुस्लिम समाज को इसीलिए विश्वभर में अवहेलना, तिरस्कार और नफ़रत का शिकार होना पड़ता है।

इस्लाम में तलाक़ को लेकर स्पष्ट है कि अगर किसी महिला को सही प्रक्रिया के तहत तीन तलाक़ दिया जाता है, तो उसे अपने पूर्व पति को छोड़कर किसी भी व्यक्ति से निकाह करने का अधिकार है। अगर दूसरा पति भी किसी कारण उसे तलाक़ देता है या उसकी मृत्यु हो जाती है तो वह अपने पहले पति से इद्दत के बाद शादी कर सकती है। लेकिन तलाक़ की सूरत में हलाला की रस्म पूर्व नियोजित नहीं होना चाहिए न ही ऐसी कोई शर्त रखी जानी चाहिए। इस्लाम में वैसे भी शर्त को ग़ैर-इस्लामी कहा गया है। अब तो मुस्लिम समाज के अनेक मुफ़्ती और आलिमान-ए-दीन भी यह मानते है कि किसी महिला को अपने पहले पति से शादी करने के लिए हलाला करने के लिए मजबूर करना ग़लत है। हलाला के नियम को मौलवियों ने अपने मर्ज़ी से तोड़ा-मरोड़ा है। इस मामले में दारुल उलूम देवबंद ने एक ताज़ा फ़तवा भी जारी किया है। इस फ़तवे में कहा गया है कि 'अरेंज्ड हलाला' ग़ैर-इस्लामी है और ऐसा करने वाले लोगों को 'शर्मिंदा' होना चाहिए। इस संबंध में दारुल उलूम से किये गए एक सवाल के जवाब में 'दारुल इफ़्ता' के एक पैनल ने जवाब दिया है कि 'तलाक़ के मामलों में, कुछ लोग पहले से तय करते हैं कि एक महिला को अपने पहले पति से दोबारा शादी करने के लिए एक और आदमी के साथ हलाला करवाना पड़ेगा। यह पूरी तरह ग़लत है और इस्लाम इस काम को पसंद नहीं करता। इस्लामी क़ानून के तहत यह शर्मनाक और वर्जित है।' यह एक कटु सत्य है कि यह क़ुरआन और नबी की सुन्नतों वाला इस्लाम तो क़त्तई नहीं है।

बात अगर वर्तमान नए फ़तवे पर की जाए तो इस फ़तवे के तर्क पर जाहिल मुसलमानों की आँख खुल जानी चाहिए थी। लेकिन समस्या यही है कि मुस्लिम समाज ने कुछ ऐसी दकियानूसी परंपराओं को अपना रखा है जिसका सही इस्लाम में, क़ुरआन की तालीम में, नबी की सही सुन्नतों में कोई ज़िक्र ही नहीं है। स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाले कुछ पुरुषों की मार अब भी स्त्री को झेलनी पड़ रही है। कुल मिलाकर शर्त, बंदिश, रस्म, रिवाज, परंपरा और न जाने किन-किन अड़चनों ने एक युवती का जीवन नर्क कर रखा है वह भी धर्म के नाम पर। यह केवल उत्तराखंड की उस युवती का नहीं बल्कि पूरे मुस्लिम समाज की प्रतिष्ठा का सवाल है। मुस्लिम समाज को अपनी प्रतिष्ठा क़ायम रखने और इस्लाम के सही प्रगतिशील संदेशों को अवाम के सामने लाए जाने के लिए सख़्त क़दम उठाने की ज़रुरत है। लेकिन उसके लिए विभिन्न मतों के उलेमा की लिखी किताबों के मुक़ाबले सही इस्लाम और क़ुरआन की सीख को समझना होगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो उत्तराखंड और बरेली के बीच फंसे इस ट्रिपल तलाक़ और हलाला जैसे विवादित मुद्दे के साथ ही रूढ़िवादी, दकियानूसी और कट्टरपंथी अनेक पेंच मुस्लिम समाज को लगातार शर्मिंदा करते रहेंगे।