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हमसे गलती हुई कहाँ.......?
Monday, March 23, 2020 - 11:01:10 PM - By विनय सिंह

सांकेतिक चित्र : कोरोना वायरस
प्रकृति और मानव का घनिष्ठ संबंध अनादिकाल से रहा है। अज्ञात काल से मनुष्य ने प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठा कर अपना जीवनयापन किया है। जानवरों का शिकार करने से लेकर आग की खोज तक मानव ने प्रकृति का ही सहारा लिया है। मानव ने नदी,जंगल,पेड़,पहाड़ और पानी का भरपूर इस्तेमाल किया है। प्रकृति से ही हमने सबकुछ सीखा है। सूर्य,चंद्र, दिन ,रात,ग्रह,नक्षत्र,राशि,विज्ञान,ज्योतिष शास्त्र, भूगोल सब कुछ प्रकृति से ही मिला है, इसीलिए प्रकृति को मनुष्य का गुरु भी कहा जाता है।

गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन ने की और प्रकाश संश्लेषण, प्रकाश वर्ष की खोज वैज्ञानिकों ने किया। इसी प्रकृति ने बाढ़, भूकंप, सुनामी आदि विनाशकारी रचना की है जिससे प्रकृतिक संतुलन बना रहे। प्रकृति के महात्म्य को कवियों और साहित्यकारों ने भी माना और उसे अपनी रचनाओं मे महत्वपूर्ण स्थान दिया है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है –

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में, भोले थे, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में।

कवि ने प्रकृति को श्रेष्ठ बताया है और मानव को विलासिता के मद में उसे भूलना नहीं चाहिए। दरअसल प्रकृति हमें कई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती है। जैसे पतझड़ का मतलब पेड़ का अंत नहीं बल्कि नई शुरुआत होती है। इस संदेश को जिसने आत्मसात कर लिया वह जीवन में कभी सफलता से भयभीत नहीं होगा। वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है। ऋषियों के अनुसार अनुशासित जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असंतुलन की समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। इनमें हुए अनावश्यक परिवर्तनों के कारण आज जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण की समस्याएँ चारों ओर व्याप्त हैं। मानव का जीवन अत्याधुनिक सुविधाओं और अनावश्यक रोमांचों के मद में खतरनाक स्थिति में पहुँच गया है। खानपान,रहन- सहन, जीवन-शैली सबकुछ बादल गया है।

प्रकृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तब उसे क्रोध आता है। जिसे वह समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है। ध्यान रहे कि नदी जब भी बहेगी, सन्तुलन के दो कगारों के बीच से ही बहेगी। उसमें व्यवधान पड़ा नहीं कि, किनारों को झकझोरने लगती है, तटबँध को तोड़ देना चाहती है। जल की तरह हवा में अवरोध उत्पन्न होने से बवण्डर खड़ा हो जाता है, तूफान आ जाता है, उसके प्रचण्ड आघात से घर-मकान, वन, उपवन, ग्राम-नगर सब-के-सब धराशायी हो जाते हैं। धरती की शोभा नष्ट हो जाती है।

लोकोक्ति है कि ‘जब तक सांस, तब तक आस।’ परन्तु जब सांस ही ज़हरीली हो जाए, तब उससे जीवन की आशा क्या की जा सकती है? वस्तुतः सांस की सार्थकता वातावरण की मुक्तता में निहित है। आज वातावरण मुक्त है कहाँ? विश्व नें प्लेग ,मलेरिया,डेंगू,कैंसर,टीबी,जैसी बीमारियों के बाद कोरोना जैसी महामारी मानव के अनियमित आचरण का परिणाम है। आज पूरा विश्व इस महामारी की चपेट में आ गया है। अब हमें सावधान रहने की आवश्यकता है और विचार करें कि हमसे गलती हुई कहाँ ?